इस लेख में हम प्रेमानंद महाराज जी द्वारा सुझाए गए उन मार्गों को जानेंगे। जिनके अनुसरण से हम अपने अंदर सहनशीलता(Tolerance) विकसित कर सकेंगे। बुरी से बुरी परिस्थितियों में व्यक्ति के अंदर उपस्थित सहन शक्ति उसको निकाल ले जाती है।वह कैसी भी बुराइयों में खुद को गंदा होने से बचा सकता है।आइए प्रेमानंद जी के कथनों को ध्यानपूर्वक, विनम्रता से पढ़ते हैं।
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सहनशील कैसे बनें?-प्रेमानंद महाराज जी।
प्रेमानंद जी द्वारा सुझाए गए कुछ दैनिक क्रियाएं जिनके जरिए हम सहनशील बनने के लक्ष्य को साध सकते हैं-
- रोज व्यायाम करना चाहिए।
- अच्छे पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
- ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए।
- हमें पापाचरण नहीं करना चाहिए।
- नाम जप करना चाहिए।
- माता-पिता, गुरुजनों के सामने नम्र रहना चाहिए।
- सत्य शास्त्रों के वचन सुनना चाहिए।
उपरोक्त क्रियाओं को के व्यवहार से आप धीरे-धीरे सहन शक्ति पर विजय प्राप्त कर लोगे।आप सहनशील बन जाओगे।
'सहनशीलता' के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकता है?- प्रेमानंद जी महाराज।
प्रेमानंद जी कहते हैं कि हमारा जीवन केवल भगवद प्राप्ति के लिए ही है। सहना सीखो सहना।हर बात अंदर ही अंदर दबा के जला दो।उसे बाहर प्रकट मत करो।जितना तुम बातों को अपने मुख में रखोगे वो तुम्हे अशांति का माहौल ही प्रदान करेंगी।“रहीमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। सुनि इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय” अर्थात अपने दुःख को अपने अंदर ही दबा दो,किसी के सामने इसका इजहार करने से वह तुम्हारे दुःख को अपना नहीं लेगा। आप जितना किसी बात को कहते हैं उसकी सत्ता दृढ़ होती है। कहो ही मत चाहे जैसी आपकी स्थिति हो आपका हृदय जान रहा है आपको जो जलन हो रही आपका हृदय वो पाप नाश कर पवित्र हो रहा है।यह व्यर्थ नहीं जा रहा है आप नाम जप कर रहे हो ।आपका हृदय जिस बात को लेकर जल रहा है वो पवित्र हो रहा है।बोलो मत शांत रहो कुछ मत सोचो वह खुद व खुद शांत हो जाएगा।शांत करने चलोगे फिर ऐसे दलदल में फंस जाओगे फिर न जाने किस जन्म में वह अवसर मिले उस दलदल से निकलने का।जो इस जलन को सह गया उसकी भक्ति बड़ी होती है और उसकी बड़ी हुई भक्ति अजित को जीत लेती है।"सहत-सहत बाढ़े भक्ति, गृह तनु हित गार।"अपना सर्वस्व गुरदेव भगवान के चरणों में अर्पित करके उनकी आज्ञा के अनुसार चलते रहो,बस प्रभु दूर नहीं है।उपासक को हर समय सावधान रहना होता है क्योंकि यह बहुत बड़ा युद्ध है परमार्थ में चलना अध्यात्म मार्ग में चलना भगवत प्राप्ति का लक्ष्य होना एक बहुत बड़ा युद्ध है।अभी हम अपने मन को अपना मान कर या मै मान कर बर्ताव करते हुए माया में फंस जाते हैं और दुर्गति हो जाती है।सत्संग से पता चलता है कि मेरा मन नानाकृत माया में फंस कर मुझे वस में किए हुए है।तब हमे अपने परम बल का आश्रय लेने की भावना उदय होती है हमारे परम बल है 'प्रभु'। जब तक हम इनका आश्रय नहीं लेंगे तब तक मन की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाएंगे।जब तक भगवद आश्रय नहीं लेंगे ये मन की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाएंगे।जो बुद्धि निर्णायक है उसे मन ने अपने अधीन कर रखा है जो मन इंद्रियों में काबू पा सकता है उसको इंद्रियों ने अपने वस में कर रखा है यहां सब उलटपुलट गया है।बजाय इसके ये होना चाहिए था कि बुद्धि को मन में और मन को इंद्रियों पर अपना अधिकार रखना चाहिए था।जो इंद्रियां निविषय होकर प्रभु में हो सकती हैं उन्हें विषयों ने जबरन अपने वस में कर रखा है।जिस कारण हम द्वेष से ,ईर्ष्या से तथा कई ऐसी बेड़ियां हैं जिनसे हम खुद को जकड़ते जा रहे हैं। हमें मन इतना जलाता है जिसे हम सहन नहीं कर पाते और उसकी इक्षाओं के आगे विवश हो जाते हैं।क्योंकि हमारा सुमिरन प्रभु से छूट चुका है ।जिस समय हम जल रहे होते हैं उस समय हमारा चिंतन किसी वस्तु,भोग आदि में होगा जिनका संबंध राग या द्वेष से होगा।अगर उस समय भगवत भाव है तो मन जलेगा नहीं हृदय शांत रहेगा राग तथा द्वेष उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाएंगे।
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'धैर्य' ही सहनशीलता का आधार है।-
सहनशीलता मनुष्य के व्यक्तित्व और उसके व्यवहार को उजागर करती है।जिस व्यक्ति के अंदर सहनशीलता का अभाव है वह व्यक्ति घृणा का पात्र बन जाता है।जीवन स्थाई नहीं है।यह दो पहलुओं से मिलकर बना है- अनुकूलता और प्रतिकूलता। जो एक के बाद एक हमारे जीवन में आते रहते हैं।जिनके अंदर सहन करने की क्षमता कम है वह इन पहलुओं में अपना जीवन सुख से ज्यादा दुःख में व्यतीत करेगा। परंतु कैसे हम सहनशील बन सकते हैं? यह प्रश्न आपके मन में उठ रहा होगा। सहनशील बनने से पहले हमे समझना होगा कि "धैर्य"(Patience) जैसा छोटा दिखने वाला शब्द कैसे इसका आधार बनकर आता है। मनुष्य को कुछ चाहने की इच्छा कभी खत्म नहीं होती।ऐसा मुमकिन भी नहीं है की जो हमने चाहा और वो हमे न मिले।परंतु हमारी इच्छा और उसको पाने के बीच में आता है धैर्य। क्योंकि जिसके अंदर धैर्य नहीं है वह उस चीज की जल्दी से जल्दी चाह में विफल हो जाता है या फिर उसे बीच में ही छोड़कर चला जाता है। किसी चीज को पाने की इच्छा से पहले धैर्य को विकसित करना बेहद जरूरी है और जिसने अपने अंदर धैर्य को विकसित कर लिया उसके अंतरमन में सहनशीलता बसने लगेगी।
“रहीमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। सुनि इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय” दोहे का अर्थ क्या है?
रहीम जी के इस दोहे का अर्थ है कि अपने मन के दुख को अपने मन में ही रखिए। तुम्हारे दुःख को सुनकर लोग उसे बांटने वाले नहीं हैं।
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